उत्पादन और मूल्य प्राप्ति दोनों में अनिश्चितता की वजह से किसान उच्च लागत वाली कृषि के दुष्चक्र में फंस गया है। लगातार गिरता उत्पादन और बढ़ती बीमारियां कृषि क्षेत्र की जटिलताओं को और बढ़ा रही हैं। इस परिस्थिति से किसानों को निकालने और उनके दीर्घकालिक कल्याण के लिए प्राकृतिक खेती की तरफ रुख करने के सकारात्मक परिणाम मिल रहे हैं
हिमाचल प्रदेश प्राकृतिक खेती राज्य बनने की ओर तेज़ी से कदम बढ़ा रहा है। राज्य में 3 साल पहले शुरू की गई प्राकृतिक खेती के सफल परिणाम नज़र आने लगे हैं। रसायनों के प्रयोग को हत्तोत्साहित कर किसान की खेती लागत और आय बढ़ाने के लिए शुरू की गई 'प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना' को किसान समुदाय बड़ी तेज़ी से अपने खेत-बागीचों में अपना रहा है। योजना के शुरूआती साल में ही किसानों को यह विधि रास आ गई और 500 किसानों को जोड़ने के तय लक्ष्य से कहीं अधिक 2,669 किसानों ने इस विधि को अपनाया। 'प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना' का कार्यान्वयन करने वाली राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई के आंकडों के अनुसार साल 2019-20 में भी 50,000 किसानों को योजना के अधीन लाने के लक्ष्य को पार करते हुए 54,914 किसान इस विधि से जुड़े। कोविड काल में भी इस विधि के प्रति किसानों का लगाव बढ़ा एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद साढ़े 14 हज़ार से ज़्यादा नए किसानों ने प्राकृतिक खेती को अपनाया है। हिमाचल प्रदेश सरकार की ओर से शुरू की गई इस योजना के तहत सितंबर 2021 तक प्रदेशभर में 1,55,222 किसानों को प्रशिक्षित किया गया है, जिनमें से 1,41,254 किसान परिवारों ने 1 लाख बीघा से ज़्यादा भूमि पर इस खेती विधि को खेती-बागवानी में अपनाया। कृषि विभाग के आंकडों के अनुसार प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना प्रदेश की 3615 में से 3551 पंचायतों तक पहुंच चुकी है।
प्राकृतिक खेती को लेकर राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई ने विभिन्न अध्ययन किए हैं जो इस विधि की प्रासंगिकता एवं व्यावहारिकता को इंगित करते हैं। ऐसे ही एक अध्ययन के अनुसार प्राकृतिक खेती अपनाने के बाद किसानों की खेती लागत जहां 46 प्रतिशत कम हुई है वहीं उनका शुद्ध लाभ 22 प्रतिशत बढ़ा है। सेब-बागवानी में बीमारियों के प्रकोप पर किए अध्ययन में पाया गया कि प्राकृतिक खेती से सेब पर बीमारियों का प्रकोप अन्य तकनीकों की तुलना में कम रहा ।
प्राकृतिक खेती से जहां सेब के पौधों और पत्तियों पर स्कैब का प्रकोप क्रमशः 9.2 एवं 2.1 प्रतिशत रहा वहीं यह रसायनिक खेती में 14.2 एवं 9.2 प्रतिशत रहा। इसी तरह प्राकृतिक खेती बागीचों में आकस्मिक पतझड़ 12.2 रहा जबकि रसायनिक खेती वाले बागीचों में इस रोग का प्रकोप 18.4 प्रतिशत हुआ। प्राकृतिक खेती के नतीजों से प्रभावित होकर बागवान बड़ी संख्या में इस विधि के प्रति आकर्षित हुए हैं। मौजूदा आंकड़ों के अनुसार प्रदेशभर के 12 हजार से ज्यादा बागवान प्राकृतिक विधि से विभिन्न फल-सब्जियां उगा रहे हैं।
इसके अलावा यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय और चौधरी सरवण कुमार कृषि विश्वविद्यालय में प्राकृतिक खेती पर चल रहे शोध कार्य में प्रारंभिक तौर पर संतोषजनक नतीजे देखने को मिले हैं। रिजनल हॉर्टीकल्चर रिसर्च स्टेशन मशोबरा की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ उषा शर्मा के अनुसार प्राकृतिक खेती पर रिसर्च स्टेशन में काम किया जा रहा है। हमने एक ऐसे बागीचे में भी प्राकृतिक खेती विधि पर परिक्षण किया जो सूखने के कगार पर था और उसमें लगे सेब के पेड़ों को हम काटने जा रहे थे, लेकिन प्राकृतिक खेती के आदानों से बागीचा एक बार फिर से न सिर्फ हरा भरा हुआ बल्कि इसमें फल आना भी शुरू हो गए। इसके अलावा उन्होंने कहा कि इस खेती विधि में उत्पादन बिल्कुल कम नहीं हुआ है और पौधों और मिट्टी का स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ है।
लाहौल-स्पीति के शांशा गांव के किसान रामलाल ने बताया कि प्राकृतिक खेती से उनका सब्जी उत्पादन पहले से बेहतर हुआ है। पालमपुर में इस खेती का प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने गोभी, आइसबर्ग, ब्रोक्ली, मटर, आलू, टमाटर और राजमाश की खेती में प्राकृतिक खेती आदानों का प्रयोग किया। प्राकृतिक खेती से उन्हें सब्जियों के भार में बढ़ोतरी देखने को मिली। जहां पहले आइसबर्ग की चार पेटियों का भार 60 किलोग्राम होता था वह बढ़कर 70-75 किलो हो गया। साथ ही सब्जियों की सेल्फलाइफ और स्वाद भी पहले की तुलना में बढ़ गया है। इस खेती के परिणामों से खुश होकर रामलाल लीज पर जमीन लेकर इस खेती का दायरा बढ़ा रहे हैं। पहले वह सालभर में 5 बीघा भूमि पर 17 हजार खर्च कर साढ़े 3 लाख कमाते थे। प्राकृतिक खेती से अब वह 1 हजार खर्च कर 4 लाख की आय कमा रहे हैं।
इस विधि से फल उत्पादन में भी अच्छे परिणाम मिल रहे हैं। शिमला जिले के चौपाल क्षेत्र के बागवान जीतराम इस बात की तस्दीक करते हैं। 6 बीघा में प्राकृतिक खेती कर रहे जीतराम की आय पहले की अपेक्षा में दोगुनी से ज्यादा हो गई है। पहले वह 2 लाख कमा रहे थे जबकि अब उनकी आय साढ़े 4 लाख हो गई है। रसायनिक विधि से सेब-बागवानी में जहां पहले 70 हजार की खाद व कीट-फफूंदनाशकों का इस्तेमाल होता था अब उन्होंने उसे बंद कर दिया है। प्राकृतिक खेती अपनाने के बाद उनकी लागत 5 हजार रह गई है। जीतराम ने बताया कि पहले सेब की औसतन 150 पेटियां होती थीं लेकिन अब वह 300 से ज्यादा पेटी सेब का उत्पादन कर रहे हैं।
प्राकृतिक खेती की जरूरत क्यों?
कृषि और संबद्ध क्षेत्र राज्य के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में 13.6 प्रतिशत योगदान करता है। यह क्षेत्र राज्य की 69 फीसदी आबादी को प्रत्यक्ष तौर पर रोज़गार मुहैया करवाता है। हिमाचल सहित देशभर में किसानों की वर्तमान सामाजिक-आर्थिक स्थिति स्वस्थ नहीं है। उत्पादन और मूल्य प्राप्ति दोनों में अनिश्चितता की वजह से किसान उच्च लागत वाली कृषि के दुष्चक्र में फंस गया है। लगातार गिरता उत्पादन और बढ़ती बीमारियां कृषि क्षेत्र की जटिलताओं को और बढ़ा रही हैं। इस परिस्थिति से किसानों को निकालने और उनके दीर्घकालिक कल्याण हेतू हिमाचल सरकार ने वर्ष 2018 से प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना की शुरूआत की है। इस योजना के माध्यम से सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा रहा है।
खेती की इस अवधारणा के अनुसार फसल और पौधों के लिए आवश्यक सभी ज़रूरी और सूक्ष्म पोषक तत्व मिट्टी में ही मौजूद हैं, लेकिन वे पौधों या फसलों को सीधे नहीं मिल पाते। इन पोषक तत्वों को सूक्ष्मजीव पोधों को उपलब्ध करवाते हैं। पौधे मिट्टी में मौजूद खनिजों से पोषक तत्व लेते हैं और इस कार्य के लिए मिट्टी में अरबों सूक्ष्मजीव हैं। लेकिन रसायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के निरंतर उपयोग से इन सूक्ष्मजीवों की संख्या कम हो गई है। इन सूक्ष्मजीवों की संख्या बढ़ाकर इन्हें जीवंत करने की आश्यकता है। इसके लिए यह विधि भारतीय नस्ल की गायों के गोबर, मूत्र और स्थानीय पौधों पर आधारित विभिन्न आदानों के इस्तेमाल का अनुमोदन करती है। क्योंकि इस खेती विधि के जनक पदम्श्री सुभाष पालेकर का कहना है कि देसी नस्ल की गाय के गोबर व मूत्र में अन्य पशुओं के मुकाबले कई सौ करोड़ अधिक पोषक सूक्ष्मजीवों को पाया गया है।
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिलकर हो रहा काम
'प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना' की राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई एक सतत् खाद्य प्रणाली पर भी काम कर रही है ताकि प्रदेश में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके। इस प्रणाली को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के विशेषज्ञों के सुझावों के अनुरूप तैयार किया गया है। पुराने एवं स्थानीय बीजों की महत्ता को समझते हुए योजना के तहत इन बीजों के संरक्षण एवं संवर्धन को भी तरजीह दी जा रही है। किसानों के व्यापक कल्याण के लिए राज्य परियोजना इकाई, नीति आयोग और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिलकर काम कर रही है। प्रदेश में प्राकृतिक खेती कर रहे किसान-बागवानों के लिए एक अनूठी स्व-प्रमाणन प्रणाली भी विकसित की जा रही है ताकि बाजार में प्राकृतिक खेती उत्पाद की पैठ बढ़े एवं किसानों को बेहतर मूल्य सुनिश्चित हो।
कोरोना महामारी के दौरान प्राकृतिक खेती के प्रसार में दिक्कतों का सामना करना पड़ा है क्योंकि इस दौरान किसानों के प्रशिक्षण के लिए बड़े कार्यक्रमों का आयोजन नहीं किया जा सका, बावजूद इसके तकनीक का सहारा लेते हुए किसानों को प्राकृतिक खेती के प्रति जागरूक करके इस खेती विधि से जोड़ा गया।
प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना के कार्यकारी निदेशक प्रो राजेश्वर सिंह चंदेल ने बताया कि किसान व पर्यावरण हितैषी प्राकृतिक खेती के प्रति किसानों का बहुत अच्छा रूझान देखा जा रहा है। इस योजना के तहत जुड़ने वाले किसानों का सरकार की ओर से देसी गाय की खरीद पर 50 फीसदी अनुदान भी दिया जा रहा है। किसान-बागवान बड़ी तेजी से इस खेती विधि को अपना रहे हैं। अभी तक इस खेती विधि से 1 लाख 40 हजार से अधिक किसान जुड़ चुके हैं। इसलिए अब हम इन किसान-बागवानों के उत्पादन का बाजार में उचीत दाम दिलवाने और इनके विपणन की व्यवस्था तैयार कर रहे हैं। इसके अलावा किसानों और उपभोक्ताओं में विश्वास को बनाए रखने के लिए किसानों का निशुल्क पंजीकरण करने जा रहे हैं। इस खेती विधि को अपनाने वाले किसान -बागवानों की बाजार पर से निर्भरता खत्म हो रही है और वे अपने आप पास के संसाधनों का ही खेती में प्रयोग कर रहे हैं जिससे किसानों की कृषि लागत बहुत कम हो गई है और उनके मुनाफे में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।
(रोहित पराशर हिमाचल प्रदेश सरकार की प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना में जनसम्पर्क अधिकारी हैं। पिछले एक दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े हैं। पूर्व में TERI - EJN फेलो रहे हैं।)