आप अपनी संतानों से प्रेम करते हैं न, तो ये ईंट पत्थर के बंगले काम न आएंगे जिसे आप जोड़ रहे …काम आएगी शुद्ध हवा, साफ पानी, हरे जंगल, चहकते पक्षी…खेलते हिरण…झपटते शेर…यानी सम्पूर्ण जैवविविधता…!!!
साउथ पेसिफिक में एक छोटा सा आइलैंड (द्वीप) है, नाम है ईस्टर आइलैंड। करीब तीन हज़ार साल पहले यहां पॉलीनेसियाई आकर बस गए। यहां की ज़मीन बहुत उपजाऊ थी और अनेक प्रजाति के पेड़ों और घासों का घना जंगल था । इन पॉलीनेसियाई लोगों ने आइलैंड के दो प्रजाति के पेड़ों जिनमें विशालकाय ताड़ और नींबू की एक प्रजाति जिसे ये 'हौहौ' बोलते थे, को खूब लगाया बढ़ाया। ताड़ की लकड़ी इनको घर बनाने और मछली पकड़ने में काम आती और हौहौ की लड़की को ये जलाकर आइलैंड की ठंडी में अपने को गर्म रखते। इसके अलावा इन्होंने इन पेड़ों के रेशों से रस्सियां भी बनाई और खेती करने के लिए जंगलों को काटा भी।
इस तरह से ईस्टर आइलैंड पर पोलीनेशियाई लोगों का जीवन मज़े से कट रहा था। सन 1400 तक इन पोलीनेशियाई लोगों की जनसंख्या करीब 20,000 थी लेकिन उसके बाद ये लोग आइलैंड के पेड़ों और ज़मीनी स्रोतों का इतना अधिक उपयोग करने लगे कि इनका नवीनीकरण (रिन्यू) न हो पाता था। जब प्राकृतिक स्रोत कम पड़ने लगे तो पोलीनेशियाई लोगों के नेताओं ने अपने भगवान की बड़ी पत्थर की मूर्तिया बनाई और पूजा-अर्चना करने लगे। इस काम के लिए, इनके नेताओं ने लोगों को बड़े-बड़े वृक्षों को काटने का आदेश दिया जिससे भगवान जी का आलीशान महल बन सके। बड़ी बड़ी मूर्तियों को ये लोग लठ्ठों पर लादकर रस्सियों से खींचकर, आइलैंड की विभिन्न जगहों पर ले गए।
इस प्रक्रिया ने पोलीनेशियाई लोगों में पेड़ो का उपभोग इतना ज़्यादा कर दिया कि बड़े पेड़ खत्म हो गए। सन 1600 तक केवल कुछ छोटे पेड़ बचे थे। अब बड़े पेड़ नही थे तो ये लोग किनारे पर आने वाली बड़ी समुद्री मछलियों को न मार पाते और न ही गहरे पानी मे रहने वाली मछलियों को पकड़ पाते और तो और नाव बनाने के लिए लकड़ियां न रहीं । इस तरह जब जंगल समाप्त हो गए तो पानी के स्रोत, घाटियां और झरने सूख गए। ज़मीन टूटने लगी और खेती बर्बाद हो गयी। पकाने और आग जालकर गर्म करने के लिए भी लकड़ियां न थी। अब, भूखे लोगों ने जमीनी और समुद्री पक्षियों को खाकर खत्म कर दिया। उसके बाद चूहों और अन्य जंतुयो का भक्षण शुरू किया। भूख की इस लड़ाई में विभिन्न वंशो के लोग आप मे लड़ने मरने मारने लगे और अंततः ये खुद ही एक दूसरे को मारकर खाने लगे।
1722 में ईस्टर डे पर डच लोग जब यहां पहुँचे तो करीब 2000 भूखमरी के शिकार पोलीनेशियाई उन्हें झाड़ झंखाड़ में जीवित मिले। तो ये रही ईस्टर आइलैंड की कहानी। अब इस कहानी को बृहत पटल पर देखते है।
ईस्टर आइलैंड की तरह ही हमारी पृथ्वी भी ब्रहांड में एक पृथक आइलैंड जैसी है। जैसे आइलैंड महासागर के बीचोबीच था और आपातकाल आने पर कहीं और भागने की स्थिति न रही उसी तरह पृथ्वी ग्रह के पास भी ऐसा कोई ग्रह नही है जहां हम आसानी से भागकर अपनी जान बचा सकें। जैसे ईस्टर आइलैंड के लोग अपनी जनसंख्या खूब बढ़ाते गए और उपलब्ध प्राकृतिक स्रोतों का अनियंत्रित तरीके से भक्षण करते गए उसी तरह आज पूरी पृथ्वी पर प्राकृतिक स्रोतों के भक्षण की लूट चहुँ ओर मची है। तो क्या हम ईस्टर आइलैंड के लोगों की तरह तिलतिल मरना चाहेगें? अगर इस असल कहानी से बात समझ में आ गई हो तो उठ खड़े हो जाएं प्राकृतिक स्रोतों के सतत (sustainable) उपभोग के लिए। इसके लिए आपको सबसे पहले ये विज्ञान समझना होगा कि ये जीवनदायनी पृथ्वी किस तरह से अपना कार्य कर रही।
जैसे शेर को जब तक भूख नही लगती तब तक वह अपना शिकार नही करता उसी तरह से हम मनुष्यों को अपने नित उपयोग में आने वाले प्रत्येक प्राकृतिक स्रोत, जल जंगल ज़मीन हवा, पेड़ खनिज बिजली आदि का आवश्यकतानुसार उपयोग करना सीखना होगा। जैसे खाना खाने के बाद पचाने में वक्त लगता है और उसके बाद फिर से भूख लगती है उसी तरह इस पृथ्वी के हर स्रोत को ऐसे उपभोग करना है कि उसे इतना वक्त मिले कि वह फिर से वही मात्रा और गुण प्राप्त कर ले। आप अपनी संतानों से प्रेम करते हैं न, तो ये ईंट पत्थर के बंगले काम न आएंगे जिसे आप जोड़ रहे …काम आएगी शुद्ध हवा, साफ पानी, हरे जंगल, चहकते पक्षी…खेलते हिरण…झपटते शेर…यानी सम्पूर्ण जैवविविधता…!!!